सकुन जब ना बचपन भुलता है ना प्राकृति ना घर ना घरों के आंगन आगे चल कर आप चाहे कितने भी अमीर हो जाओ चाहे राजे बन जाओ वह दिन आप नही बना सकते जो बचपन में मां बाप के सिर पर बहारें लूटी हों तब तो रब्ब भी याद नहीं रहता यह अवस्था या बचपन अगर किसी ने अपने पैत्रृक गांव में देखा जब औरते अपने हाथो से अपने घर को कच्ची मिट्टी से बना घरों को हार शंगार करती थी आज कोठियों में कोई renovation करना हो तो पैसा पहले चाहिए लेकिन इस जमाने में सब फ्री मिटी से ,जंगल से, वृक्षों से और पशुओं से मिलता था 1964 में हम ने अपनी मां जी के साथ कच्चे घरों की रेनोवेशन किया वह रात को लालटेन जगा कर भी घर सुंदर रखने का काम करती थी दिन में गर्मी अधिक होने से दिन में दुसरे काम अधिक होने से समय को लोग adjust कर लेते थे आज पंजाब हरियाणा में लगभग उन सब के पास सुंदर कोठियां हैं जिन्होंने यह दिन देखे परंतु सकुन प्राकृति वाले घरों से कम है कारण कोठियों के आंगन है नही,कोठियां चारो तरफ से बंद ,खिड़कियां बंद ताजा हवा नही ,सूर्य नही चांद तारो से मुंह छुपा लिया physical work नहीं पशुओं का ताजा दूध नही...